जैन रामकथा के मर्मज्ञ, प्रख्यात शिक्षाविद् और हिन्दी साहित्य के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, अनेक गूढ़ विषयों के अध्येता, अपभ्रंश साहित्य के उद्भट विद्वान, अपनी भाषा-शैली और उत्कृष्ट लेखन से हिन्दी साहित्य की सुरभि देश-विदेश तक पहुंचाने वाले डॉ.योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ किसी परिचय के मोहताज नहीं है। डॉ.अरुण ने बालगीत, गीत, ग़ज़ल, कहानी और संस्मरण सहित हिन्दी साहित्य की अनेक विधाओं को समृद्ध किया है। उनके चैतन्य चिंतन में व्यापकता और सृजन में मौलिकता है। उनके गीतों में रागात्मकता है तो उनकी कहानियों में भावात्मकता भी है। कथा के साथ भाषा और भावों का संगमन इनके साहित्य का विशेष आकर्षण है। किसी भी साहित्यक विधा को श्रेष्ठ कृति के रूप में प्रस्तुत करने के लिए जिस कौशल की आवश्यकता होती है वह कौशल कालजयी एवं मध्यकालीन साहित्य में योगदान के लिए डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा में दिखाई देता है।
अरुण जी की कहानियों में जीवन मूल्यों से जुड़ी घटनाओं की प्रधानता है। भावनाओं को तथ्यों और तर्कों के आधार पर प्रस्तुत करने के लिए भाषा की सरलता और इससे भी बढ़कर सहजता पर वह अधिक ध्यान देते हैं। उनकी कहानियां समाज को सकारात्मक संदेश देती चलती हैं। कविताओं के संदर्भ में उनका मानना है कि कविताएं मन को छू सके तभी वें कविताएं हैं। अरुण जी अधिकांशतः गीत और ग़ज़ल लिखते हैं और उसे अपनी साधना मानते हैं। उन्हीं के शब्दों में-‘‘गीत में मात्र लफ़्फ़ाज़ी या तुकबंदी नहीं होती,बल्कि गीत तो पाठक और श्रोता की भावनाओं को जगाकर आनंद की अनुभूति कराने का दिव्य माध्यम होता है।’’ उनका लेखन मूलतः सकारात्मक रहा है। वह मानते हैं कि जो लेखक नकारात्मक विचार या भाव लेकर चलता है, उसे समाज आज नही ंतो कल अस्वीकार कर देता है।
40 से अधिक चर्चित कृतियों के रचयिता डॉ.अरुण के साहित्य कोश में चार बाल कविता-संग्रह भी शामिल हैं। उनकी पुस्तकों में ‘जैन कहानियां’, ‘जैन रामायण की कहानियां’, ‘दादी मां ने हां कह दी’, ‘अभिनंदन’, ‘बाती नदी हो जाए’, ‘गीत त्रिवेणी’, ‘जीवन अमृत’, ‘अक्षर चिंतन’, ‘पुष्पदंत’, ‘स्वयंभू एवं तुलसी के नारी पात्र’, ‘काव्य सरोवर का हंस’, ‘अहसास’, ‘अभिनंदन’, ‘नया सवेरा’, ‘नदिया से सीखो’, ‘कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर रचना-संचयन’ और ‘ प्राकृति-अपभ्रंश: इतिहास दर्शन’ प्रमुख रूप से शामिल हैं।
उत्तराखंड के हरिद्वार जिले की ‘कनखल’ नगरी में 7 जून 1941 को जन्में डॉ.योगेन्द्र नाथ शर्मा अरुण के पास अध्यापन के क्षेत्र में भी 35 वर्षो का लंबा अनुभव है। हिंदी में स्नातकोत्तर करने के बाद उन्होंने पी-एच डी की उपाधि हासिल की और अपना कार्यक्षेत्र अध्यापन को चुना, लेकिन गंगा तट की कनखल नगरी में जन्मे डॉ अरुण ने समाज को करीब से देखा तो उनके भीतर बैठे एक लेखक और कवि ने करवट ली, और मन में हिलोरे लेता भावों का समंदर काग़ज़ पर आकार लेने लगा, और देखते ही देखते योगेन्द्र नाथ शर्मा अपनी साहित्यक साधना के साथ डॉ.योगेन्द्र नाथ शर्मा अरुण हो गए। उम्र के 83 वें पड़ाव पर भी उनका चिंतन और लेखन जारी है। सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं उनके कॉलम आज भी पाठकों पर अपनी छाप छोड़ रहे हैं।
‘जैन रामकथा’ के अन्तर्गत ‘‘स्वयंभू एवं तुलसी के नारीपात्र: तुलनात्मक अनुशीलन’’ पर आपने शोध किया है। जबकि ‘‘स्वयंभू प्रणीत ‘पौम चरिउ’ में समाज, संस्कृत एवं दर्शन की अभिव्यंजना’’ विषय पर यूजीसी का महत्वपूर्ण शोध कार्य कर उन्होंने डी.लिट् की उपाधि प्राप्त की है। सेवा निवृत्ति के बाद भी डॉ.अरुण ने ‘‘रामकथा परम्परा एवं स्वयंभू देव की जैन रामायण ‘पौम चरिउ’ ’’ पर भी एक महत्वपूर्ण शोध पूरा किया है।
हिन्दी साहित्य में अमूल्य अवदान के लिए डॉ. अरुण को अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार एवं सम्मान भी प्राप्त हो चुके हैं, जिनमें प्रमुखतः पं. मदन मोहन मालवीय सम्मान, काव्य रत्न पुरस्कार, गीत रत्नाकर पुरस्कार, साहित्यश्री पुरस्कार और नाट्य रत्न पुरस्कार। अरुण को राष्ट्रीय साहित्य अकादमी द्वारा अपभ्रंश हिंदी साहित्य भाषा सम्मान भी प्रदान किया जा चुका है। डॉ. अरुण को स्वंयभू सम्मान दो बार, विदुषी विद्योत्तमा सम्मान, शैलीकार सम्मान, कवि नीरज सम्मान और उद्भव शिखर सम्मान आदि प्राप्त हो चुके हैं। डॉ. अरुण को राष्ट्रीय साहित्यक अकादमी द्वारा 2008 में भाषा के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए पुरस्कार मिला है। वर्ष 2021 में भारत सरकार की अखिल भारतीय हिंदी सेवी सम्मान योजना के अंतर्गत वर्ष 2017 के विवेकानंद सम्मान से भी उन्हें नवाजा जा चुका है।
डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में राष्ट्रपति के नामित कार्यपरिषद सदस्य रहने के साथ-साथ राष्ट्रीय साहित्य अकादमी के सदस्य भी रह चुके हैं। डॉ. अरुण अनेक साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं के सदस्य एवं पदाधिकारी रह चुके हैं। वह 10 देशों में भारत सरकार की ओर से व्याख्यान दे चुके हैं। इनमें, अमेरिका, कनाडा, हॉलैंड, जर्मनी, फ्रांस, बेलजियम, मैक्सिको, जापान और लक्समबर्ग जैसे देश शामिल है। डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ महात्मा ज्योतिबा फुले रूहेलखंड विश्वविद्यालय के पीलीभीत स्नातकोत्तर कॉलेज से 30 जून 2001 को प्रधानाचार्य के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। अपभ्रंश साहित्य के क्षेत्र में डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ का नाम आज अग्रिम पंक्ति के विद्वानों में लिया जाता है।