भौतिक चकाचोंध है तो अज्ञान का अंधकार भी घनीभूत है।ऐसे में स्वामी श्री परमात्मा नन्द सरस्वती एक ज्योति पुंज बन कर उभरे है/ समय के चौराहे पर खड़ी मानवता के लिए स्वामी जी एक प्रकाश की लो है। यह ऐसा समय है जब सनातन को लेकर बहुत शोर भी है ,बहुत स्वर भी सुनाई देते है।सतह पर एक धुंधलका छाया है। ठीक उसी समय स्वामी जी वेदांत का गूढ़ अर्थ बहुत सरल शब्दों में समझाते है।वे सनातन परम्परा के विलक्षण संत है।
संसार में धर्मो की बड़ी शृंखला है।लेकिन हिन्दू महज एक धर्म नहीं है। इसका न कोई आरम्भ है न कोई अवसान।यह सत्य और संस्कृति का समागम है।हिन्दू धर्म का फलक विस्तृत और द्रष्टिकोण व्यापकता लिए मिलता है।यह जीवन जीने का एक नजरिया है। यह एक ऐसा सांस्कृतिक प्रवाह है जो सतत प्रवाहमान है।यह धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथो की एक समृद्ध विरासत का वाहक है।इसमें निरन्तरता और अनवरतता है।
स्वामी जी कहते है वेदांत की शिक्षा को एक वाक्य में अभिव्यक्त किया जा सकता है। वे उस वाक्य को रूपायित करते है और कहते है - तत त्वम असि अर्थात तू वही है / यह एकत्त्व की दृष्टि है। इसी का नाम अद्वैत है।अद्वैत की यही दृष्टि भगवत गीता और उपनिषदों में प्रकट होती है।हिन्दू धर्म की जड़े और मौलिकता किसी एक व्यक्ति पर केंद्रित और अवलम्बित नहीं है। यह अनंत है ,अनादि है। हिन्दू धर्म में गुरु शिष्य की ऐसी अटूट परम्परा है जहाँ ज्ञान पीढ़ियों को स्थान्तरित होता रहता है।
स्वामी जी सनातन की इसी समृद्ध गुरु शिष्य परम्परा की एक कड़ी है।उनकी वाणी और व्यक्तित्व सदियों से संचित सनातन ज्ञान को स्थान्तरित करते हुए मिलता है / स्वामी जी की वाणी में व्यापकता है तो दृष्टि में विराटता है। वे जब उपस्थित मानवता से रूबरू होते है तो उनके संत व्यक्तित्व में एक अद्वितीय शिक्षक के दर्शन होने लगते है।वे एक ऐसे शिक्षक है जो शाश्त्रो के गूढ़ और जटिल ज्ञान को आम अवाम के सामने बहुत सरल ढंग से प्रस्तुत करते है। यह उनकी कुशलता है कि शास्त्रों का विरल ज्ञान आम लोगो को हृदयगम होने लगता है। फिर चाहे वो कॉलेज स्कूलों के विद्यार्थी हो या जन सामान्य या चमचमाती कॉर्पोरेट की दुनिया के किरदार हो।उनके सम्बोधन को लोग अभिभूत होकर सुंनते है।
स्वामी जी वेदांत के ज्ञान को आज के मानव जीवन में उपस्थित चुनौती और चिंता से जोड़ कर बोलने लगते है तो भटकती हुई मानवता को राह मिलने लगती है। वे कहते है आज लोग सोचते है जितनी इच्छा पूर्ण करो ,उतने सुखी होंगे। इसलिए वो ज्यादा पैसा ,ज्यादा सत्ता ,ज्यादा यश चाहते है। उन्हें लगता है कि उनके पास ज्यादा संसधान हो तो ज्यादा इच्छा पूरी कर सकते है। दूसरे तथा कथित साधक लोग है जो मानते है कि इच्छा ही मत रखो। वे कहते है इच्छा है तो दुःख है। इच्छा नहीं होगी तो दुःख नहीं होगा। लेकिन यह आपके बस की बात नहीं है। क्योंकि इच्छा तुम्हारी इच्छा नहीं आती। इच्छा तो हो ही जाती है।इच्छा पूर्ति तो सिर्फ मन को शांत करने में निहित है।अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता है ,वो क्या है ? अवयव ,अभव ,पूर्ण। चित सुखम।
स्वामी जी का जीवन वृत एक अनुकरणीय पुस्तक है जिसका प्रत्येक पृष्ठ मानवता को प्रेरित करता है।प्रत्येक पृष्ठ का प्रति शब्द इंसानियत को सनातन मूल्यों से अभिप्रेरित करता है। वे परम् पूज्य स्वामी दयानन्द सरस्वती के वरिष्ठ शिष्य है।स्वामी जी ने अपने गुरु के सानिध्य और सामीप्य में वेदांत ,योग ,संस्कृत जैसे विषयो में गहन शिक्षा प्राप्त की है। उनकी जीवन यात्रा में ऋषिकेश जैसे अनेक पड़ाव है।चार दशक का समय कोई कम नहीं होता। वे विगत 40 वर्षो से भारत और भारत के बाहर विदेशो में समाज के भिन्न भिन्न भागो को वेदांत के ज्ञान से आशीषित करते रहे है।
उनके सम्बोधन में सम सामयिक प्रतीक ,विषय और उदाहरण होते है। उनकी प्रस्तुति में तर्क , तथ्य ,ज्ञान और गहराई होती है। जो सुनता है ,मंत्र मुग्ध हो जाता है। उनका व्यक्तित्व सरलता ,करुणा और अपनत्व से परिपूर्ण है।कभी कभी विषय जटिल होता है / पर वे गूढ़ विषय को बोझिल नहीं बनने देते।बल्कि सुनने वालो को आनंद की अनुभूति से सरोबार कर देते है। कभी कभी उसमे हास्य बोध भी होता है। स्वामी जी के व्यक्तित्व के यही आयाम उन्हें समकालीन आचार्यो और हिन्दू धर्म के परम्परा प्रमुखों के बीच सम्मान और स्वीकार्यता दिलाते है।
स्वामी जी सनातन मूल्यों और वेदांत के ज्ञान को शास्त्रों से बाहर निकाला और उसे जन साधारण तक पहुंचने के लिए न केवल देश बल्कि संसार के विभिन्न भागो की यात्राएं की।इसके लिए सेमिनार ,सम्मेलन ,बैठक ,और शैक्षिक कार्यक्रम अवलंब बने। स्वामी जी का सम्बोधन और सानिध्य साधको तक सिमित नहीं रहा।वरन समाज का हर वर्ग और आयु वय के लोग लाभान्वित हुए। इनमे भविष्य की थाती नौनिहाल थे तो तरुणाई ,गृहणियां ,उद्योग व्यापार,कॉर्पोरेट और सरकारी कर्मचारी -अधिकारी भी शामिल थे।
वक्त पीछे मुड़ कर देखता है तो उसे याद आता है कि कैसे स्वामी जी गुजरात के राजकोट में 1993 में आर्ष विद्या मंदिर आश्रम की बुनियाद रखी।यह आश्रम आज भारत की महान गुरु शिष्य परम्परा की गवाही देते मिलता है। वहां आश्रम के भीतर और बाहर भी अनवरत शिक्षण के कार्यक्रम आयोजित किये जाते है। आश्रम उपनिषद ,वेदांत और भगवतगीता पर छोटी अवधि के पाठ्यक्रमों का आयोजन और संचालन करता है।आश्रम सार्वजनिक प्रवचन ,द्वी साप्ताहिक कक्षए और आवासीय शिविर का आयोजन करता है। कार्यक्रम प्रमुख तीर्थ स्थलों पर भी संयोजित किये जाते है। आश्रम के इन प्रकल्प और प्रयासों से समाज के विभिन्न वर्ग लाभान्वित होते है। गाय सनातन संस्कृति का अविभाज्य अंग है। इसीलिए आश्रम में सभी सुविधाओं से सज्जित गौ शाला भी है।आश्रम की गौशाला में गायों की मौजूदगी वातावरण को शुभ आशीषित बनाये रखता है।
शिक्षक किसी भी समाज के निर्माण का कुशल शिल्पी होता है।बालपन और बालमन एक कोरी स्लेट होता है ,उस पर जैसी इबारत लिख देंगे ,वैसा ही इंसान बन जाता है। इसमें शिक्षकों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। वे ही किसी राष्ट्र के भविष्य के नागरिको को गढ़ते है।इस लक्ष्य और दिशा के लिए आश्रम समर्पित भाव से काम कर रहा है।आश्रम के शिक्षक भारत के उदात्त मूल्यों से ओतप्रोत होकर काम करते है। आर्ष विद्या मंदिर ने शिक्षक प्रशिक्षण का महती कार्य हाथ में ले रखा है।इसके अंतर्गत शिक्षकों को परम्परिक ,समग्र शिक्षण पद्धति में प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। इन प्रशिक्षणो के माध्यम से एक शिक्षक समर्थ गुरु बनने की क्षमता प्राप्त करता है। चूँकि यह राष्ट्र निर्माण का कार्य है। इसलिए भारत सरकार के मानव संसधान मंत्रालय ने भी इसमें सहयोग किया।इसके अंतर्गत स्वामी जी ने शिक्षको के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किये।इन आयोजनों में 5 हजार से अधिक शिक्षक एक अलग जीवन दृष्टि लेकर लौटे और समाज को लाभान्वित कर रहे है।स्वामी जी इस कार्य को विशेष महत्व देते है /इसीलिए स्वामी जी ने देश भर के वि विद्यालयो ,कॉलेज और स्कूलों में शिक्षकों को सम्बोधित किया और उन्हें एक अलग दृष्टि दी।
समय पटल की पुस्तक में भविष्य का सुलेख तो बच्चे ही लिखते है। इसीलिए स्वामी जी बचपन पर बहुत ध्यान केंद्रित किया है।मानव जीवन में बालपन वो पड़ाव होता है जब इंसान बालक के रूप में संसार को कोतुहल और जिज्ञासा से देखता है और अपने मनोमस्तिष्क में प्रश्नो की रचना करता रहता है। बालमन कहता है ऐसा क्यों होता है ? यह कैसे हुआ ? इसी दृष्टि से आर्ष विद्या मंदिर बच्चो के लिए डे केम्पो का आयोजन करता है। ताकि बच्चो में जीवन के प्रति सच्ची समझ पैदा हो / विद्या मंदिर ने सॉफ्ट स्किल डेवेलपमण्ट का काम हाथ में ले रखा है
बदलते हुए विश्व में कॉर्पोरटे की भूमिका न केवल बढ़ गई है। बल्कि महत्वपुर्ण भी हो गई है।किसी समाज के लिए यह उचित नहीं होगा कि कॉर्पोरेट केवल धन अर्जित करने तक सीमित रहे।यह बहुत वांछनीय होगा कि भारत जैसे देश में कॉर्पोरेट को नैतिक उत्तरदाईत्व तक जोड़ा जाये।यही सोच कर आर्ष विद्या मंदिर ने रिलायंस ,जी टी अल ,विडिओकोंन ,जैसे बड़े कॉर्पोरटे तक पहुंचने का मिशन हाथ में लिया है।कॉर्पोरेट को आज इसकी बहुत आवश्यकता भी है। यह मिशन कॉर्पोरेट को समाज के प्रति सोचने का भाव देता है। इस समय समाज में पर्तिस्पर्धा की दौड़ और होड़ मची है। यह कई तरह के दबावों को जन्म देती है ऐसे में यह मिशन शास्त्रीय ज्ञान के माध्यम से जीवन में संतुलन का भाव उतपन्न करने में सहायता करता है।
यह ऐसा समय है जब लोग धर्म का नाम तो लेते है ,लेकिन धर्म का अर्थ और मर्म नहीं जानते। स्वामी जी कहते है - रामो विग्रहवान धर्म.. जब स्वत स्फूर्त धार्मिक व्यक्ति होते हो तो स्वत स्फूर्त ऐसा नैतिक व्यक्ति भी हो जाते हो जो मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध है। जो कर्तव्य के प्रति कटिबद्ध है। तब व्यक्ति मानव मात्र हो जाता है। तब व्यक्ति संसार के बंधनो से मुक्त हो जाता है।
स्वामी जी के शब्द , सम्बोधन और शिक्षा आधुनिक जीवन में आये भटकाव में हमे राह दिखाता है। इसमें आर्ष विद्या मंदिर का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है।आधुनिक जीवन में बहुत कुछ हमारे मूल्यों और आदर्शो के विपरीत है।ऐसे में विद्या मंदिर हमे रौशनी दिखाता है।मंदिर परिसर में एक विशाल मंदिर भी है। मंदिर में प्रतिदिन पारम्परिक पूजा अर्चना होती है। वहां शिव रात्रि ,जन्माष्टमी ,गुरु पूर्णिमा जैसे धार्मिक त्योंहार भक्ति भाव से मनाये जाते है। मंदिर में स्थित यज्ञ शाला में आयोजित वेद मंत्र और जाप वातावरण को वैदिक शुभता से परिपूर्ण कर देते है नामकरण और यज्ञोपवीत हमारे जीवन के अभिन्न अंग है। विद्या मंदिर दैनिक मानव जीवन के इन महत्वपूर्ण पवित्र संस्कारो का भी आयोजन करता है | इन सबके कुशल संचालन और संयोजन में स्वामिनी ध्यानानंद जी का सानिध्य प्राप्त होता है। वे स्वामी जी शिष्या रही है। वही इस आश्रम की रीढ़ रही है | आश्रम को आयकर कानून में छूट प्राप्त है।
स्वामी जी कहते है हमारा जीवन एक मूल्य से नियंत्रित और शाषित होता है -वो है पसंद और ना पसंद। हमारी पसंद और ना पसंद ही जीवन को निर्देशित करती है। सार रूप में कहे तो हम अपने अहंकार से शासित और संचालित होते है। एक शब्द में कहे तो कर्ता ,भोक्ता ,और जीवात्मा। हम इससे बंधे है। मैं कर्ता हूँ ,तो कर्म करता हूँ।यही कर्मफल है।
संसार के विभिन्न भागो और मंचो पर स्वामी जी जब बोलते है तो उनकी वाणी में वेदांत दर्शन और सनातन शिक्षा के शब्द निनादित होते है। वे हिन्दू धर्माचार्य सभा जैसी महत्वपूर्ण संस्था के संयोजक भी है ,महासचिव भी।यह संस्था सामूहिक हिन्दू चेतना के स्वर मुखरित करती है।स्वामी जी ने आचार्य सभा की और से अनेक राष्ट्रिय -अंतराष्ट्रीय मंचो पर अपने ओजमयी व्यक्तित्व से हिन्दू का प्रतिनिधित्व किया है। हालाँकि स्वामी जी के व्यक्तित्व को किसी पद -प्रतिष्ठान से नहीं आंका और नापा जा सकता है। लेकिन वे ओंकारेश्वर स्थित श्री आदि शंकराचार्य स्मारक के न्यासी नियुक्त किये गए है। स्वामी जी को भारत ने महात्मा गाँधी की 150 वी जयंती समारोह के लिए बनी राष्ट्रिय और राज्य स्तरीय समिति का सदस्य नामित किया गया है।वे पंडित दीनदयाल उपाध्यय शताब्दी समारोह के लिए बनी राष्ट्रिय समिति में भी सदस्य नामित किये गए है। प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी स्वय इन दोनों महत्वपूर्ण समितियों के अध्यक्ष है। स्वामी जी ने विश्व मंगल गौ ग्राम यात्रा के लिए बनी राष्ट्रिय प्रबंध समिति के सदस्य और राज्य प्रमुख के रूप में भी कार्य किया है। उन्होंने राम सेतु की सुरक्षा और अंतराष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा को जमीन पर उतारने में महती भूमिका का निर्वाह किया है।
विश्व में जब भी विभिन्न धर्मो के मध्य संबध ,सवांद ,सेतु और सम्पर्क के लिए आयोजन हुए स्वामी जी ने अपनी भागीदारी से मानवता का मार्ग दर्शन किया है। इसमें दिल्ली में आयोजित हिन्दू यहूदी नेतृत्व शिखर सम्मेलन ,सिंगापूर में विश्व धार्मिक नेताओ की परिषद की बैठक , ताईवान में एशिया ,अफ्रीका आध्यात्मिक शिखर सम्मेलन ,यरुशलम में हिन्दू यहूदी घोषणा ,कम्बोडिया ,म्यांमार ,भारत ,श्रीलंका में हिन्दू बौद्ध सम्मेलन अजरबेजान के वाकू और कजाकिस्तान के अल्माटी में धार्मिक नेताओ के शिखर सम्मेलन , विन्निपेग में जी 8 विश्व धार्मिक नेताओ का शिखर सम्मेलन ,इंग्लॅण्ड ,पुर्तगाल ,इंडोनेशिया और अमेरिका में योग पर अंतरष्ट्रीय सम्मेलन ,अमेरिका ,कनाडा ,और बाली में विश्व हिन्दू सम्मेलन शामिल है। जेनेवा में संयुक्त राष्ट्र संघ के एक आयोजन में स्वामी जी ने मुख्य वक्ता के रूप में अपनी प्रखर और प्रभावी वाणी से अमिट छाप छोड़ी है।
स्वामी जी के व्यक्तित्व में एक चुंबकीय आकर्षण है तो वाणी में मोहकता। आधुनिक जीवन भौतिकता के मोहपाश में बंधा है तो जीवन में खिंचाव ,तनाव भी बहुत है। ऐसे में जब इंसानियत स्वामी जी के शब्दों को सुनती है तो मानस पटल पर छाया कोहरा छंटने लगता है। स्वामी जी कहते है -लोग आज कल कहते है कि हम तो बंधन में फंसे है |पर हमे समझना होगा ये बंधन क्या है ? स्वामी जी प्रतीक और रूपको का सहारा लेकर लोगो को बहुत सरल ढंग से समझाते है |वे जेल का उदाहरण देते है और कहते है - जेलर और कैदी दोनों जेल में रहते है। लेकिन कैदी के लिए वो जेल है ,जेलर के लिए नहीं। वो जेल से दुखी नहीं है। जेल उसका निवास है। कैदी के लिए जेल दुखदायी है।जेलर पर कोई परवशता नहीं है। जब जी चाहे जा सकता है ,आ सकता है। वो जेलर का निवास स्थान है। तो परतंत्रता ही बंधन है। परतंत्रता क्या है ? ऐसा मिलेगा तो हम सुखी होंगे , ऐसा हम अनुभव करेंगे ,खाएंगे ,पीयेंगे ,तब सुखी होंगे। हमारी अवधारणा यह होती है कि कही नयी परिस्थ्तिति खड़ी हो , नए उपभोग हमारे पास आ जाये ,नए संयोग संजोग हमारे खड़े हो जाये ,तब हम सुखी होंगे। बंधन हमेशा स्व के ऊपर केंद्रित है। बंधन में परवश है। परतंत्र है। और परतंत्रता क्या है ? दुख है।
स्वामी जी के सम्बोधन और शिक्षण कार्यक्रम धर्म अध्यात्म और संस्कृति के प्रति उनके योगदान और समर्पण की गाथा सुनाते मिलते है।स्वामी जी के सानिध्य में 25 हजार घंटे का शिक्षण -प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित हुआ है। इससे मुमुक्षु -साधक ,सरकारी कर्मचारी ,कॉर्पोरटे अधिकारी ,छात्र समुदाय और समाज के अनेक वर्ग शामिल होकर लाभान्वित हुए है।इस कड़ी में शिविर ,सेमिनार ,सामाजिक कार्य्रकम ,सार्वजनिक प्रवचन और नियमित कक्षाओं ने मानवता को स्वामी जी के सम्बोधन से आशीषित किया है।स्वामी जी के शिक्षा सम्बोधन से दस लाख से अधिक लोगो ने अपने आंतरिक विकास के लिए वेदांत की शिक्षा प्राप्त की है।दस हजार युवाओ ने उनके शिक्षण से जीवन के पाठ पढ़े और आंतरिक विकास से रूबरू हुए।
गुजरात ऐसा राज्य है जहाँ स्वामी जी कार्यक्रमों से 10 हजार से अधिक कर्मचारी और ,कॉर्पोरेट जगत के लोग लाभान्वित हुए है।अहमदाबाद स्थित गुजरात वि विद्यालय ने स्वामी जी के योगदान के देखते हुए उन्हें डी लिट् की उपाधि से सम्मानित किया।इसी शृंखला में गुजरात सरकार ने राज्य में स्थापित सांस्कृतिक योद्धा का पहला पुरस्कार स्वामी जी को प्रदान किया।
स्वामी जी कहते है - मानव का सच्चा स्वभाव स्वय में दिव्यता है। हर मानव संभावित रूप से दिव्य है। यद्यपि हर मानव स्वय को केवल व्यक्ति या सिमित प्राणी मानता है। मानव जीवन का उदेश्य अंदर की दिव्यता को प्रकट करना है। मनुष्य नर हो या नारी ,अंतत उसे दिव्यता में परिवर्तित हो जाना है। यही मानव प्रयास का अंतिम उदेश्य भी है। हम इसे मोक्ष पुरुषार्थ कहते है। वे कहते है वास्तव में हिन्दू दर्शन और वैदिक धर्म कर्तव्य आधारित जीवन का आधार है।
स्वामी जी के सानिध्य सम्बोधन में व्यक्ति खाली हाथ जाता है। लेकिन जब उन्हें सुन कर लौटता है तो दामन सनातन मूल्यों की दौलत से भर जाता है।इसमें आंतरिक विकास ,सच्चा सुख ,जीवन दृष्टि और अतीव शांति की धन सम्पदा शामिल है।