मं दिर में प्रवेश के लिए यूं तो द्वार निश्चित होता है। लगभग हर मंदिर में वहां के प्रशासन द्वारा यह सुनिश्चित किया जाता है कि भक्तों को किस द्वार से प्रवेश करना है और किस द्वार से बाहर निकलना है। लेकिन हमारे वेद और शास्त्र इस बारे में क्या कहते हैं यह भी जानना दिलचस्प होगा।
माना जाता है कि मंदिर में हमेशा बांयें ओर से प्रवेश करना चाहिए। मंदिर की प्रदक्षिणा भी बांयें ओर से ही की जाती है। मंदिर परिसर में जहां बरगद का पेड़ होता है उस ओर से भी प्रवेश किया जा सकता है। हालांकि बरगद या पीपल के पेड़ बहुत पुराने मंदिरों में ही अब देखने को मिलते हैं। वर्तमान में मंदिर परिसर इतने बड़े होते ही नहीं कि वहां बरगद का पेड़ मिले। लेकिन प्राचीन मंदिरों के लिए यह बात सही लगती है।
अगर आप पेड़ के सामने खड़े हैं तो बांयीं ओर से मंदिर में प्रवेश करना चाहिए जो अक्सर मंदिर की दक्षिण दिशा होती है। मंदिर से बाहर आने के लिए दांयीं ओर का इस्तेमाल करना चाहिए जो आमतौर से मंदिर की उत्तर दिशा होती है।
मंदिर की प्रदक्षिणा यानि परिक्रमा घड़ी की सुई की दिशा की तरह बांयी से दांयी ओर की जाती है जिसे देवकार्य माना गया है। हिंदू धर्म में पूजा के बाद मंदिर की परिक्रमा की जाती है। परिक्रमा में भक्तजन भूगर्भ यानि देवता के आवास के चारों ओर मंदिर के अंदर ही चक्कर लगाते हैं। परिक्रमा हिंदू धर्म में पूजा करने की एक सामान्य प्रथा या कहें प्रक्रिया है। इसमें समय का भी नियम होता है। प्रदक्षिणा करने वाले इस पथ को प्रदक्षिणा पथ भी कहते हैं।
प्रदक्षिणा में बांयी ओर यानि दक्षिण दिशा से की जाती है जो ईमानदार, सरल, निष्पक्ष, आज्ञाकारी, विनम्र और शुभ का प्रतीक है।
अगर हम ध्यान देंगे तो पाएंगे कि इस तरह बांयी से दांयी की ओर परिक्रमा हिन्दू धर्म में शुभ का प्रतीक है। शादी के समय अग्नि के चारों ओर वर-वधू परिक्रमा करते हैं जो बांयी से दांयी की ओर होती है। आरती करते समय दिए को भी बांयी से दांयी की ओर ही घुमाया जाता है।
अप्रदक्षिणा यानि दांयी से बांयी ओर पितृकार्य यानि पूर्वजों की पूजा की जाती है।
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