द शहरा के चार दिन बाद जब चांद पूरा होता है तो शरद पूर्णिमा आती है। पुराणों में शरद पूर्णिमा को श्रीकृष्ण की रासलीला से जोड़ा जाता है। इस दिन कृष्ण राधा और गोपियों के साथ रासलीला करते थे। इसलिए शरद पूर्णिमा को प्यार की रात भी कहा जाता है जिसमें प्रेमी जोड़े चांद की रोशनी में एक दूसरे से प्यार का इज़हार करते हैं। कोजागिरी पूर्णिमा के इस दिन को कौमुदी यानि चांद की रोशनी के तौर पर मनाया जाता है। माना जाता है कि चांद की तेज रोशनी मानसून के बाद विशेष खुशी लेकर आती है।
शरद पूर्णिमा में ‘शरद’ ‘शरद ऋतु’ (मौसम) का प्रतीक है जो फसलों का त्योहार है। आयुर्वेद में शरद ऋतु पित्त प्रधानता वाला समय माना गया है। एलोपैथी में पित्त मेटाबॉलिज्म से संबंधित है। पित्त को संतुलित करने के लिए ठंडे वातावरण और खाने की ठंडी चीजों की जरूरत होती है। पूर्णिमा के दिन चांद पृथ्वी के सबसे करीब होता है और आयुर्वेद के अनुसार इस दिन चांद की रोशनी में ऐसे कई गुण होते हैं जिनसे कई परेशानियां दूर हो सकती हैं। परंपरा के मुताबिक इस दिन पोहा, चावल, खीर, मीठा बनाकर चांद की रोशनी में रखा जाता है और बाद में खाया या पिया जाता है। कुछ लोग इस दिन चांद को सीधे नहीं देखते बल्कि एक बर्तन में उबलते हुए दूध में चांद का अक्स देखते हैं।
इस दिन व्रत रखते हुए कोई ठोस आहार नहीं खाया जाता। व्रत के पूरा होने के बाद व्यक्ति को सबसे पहले ठंडा दूध और चावल खाने होते हैं। परंपरा है कि व्रत के दौरान ठंडा दूध पीना होता है। दरअसल शरद ऋतु में दिन बहुत गर्म और रातें ठंडी होती हैं। इस मौसम में पित्त यानि एसिडिटी (पेट की जलन) बहुत होती है। ऐसे में ठंडा दूध और चावल खाने से इस एसिडिटी में राहत मिलती है।
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