हमारे वेदों और शास्त्रों में परिवार, पारिवारिक इकाई और बच्चों के महत्व पर बहुत कुछ लिखा गया है। बच्चे क्यों होने चाहिए, इस पर भी काफी कुछ लिखा गया है। हालांकि इनमें से कई बातें आज प्रासंगिक नहीं लगती लेकिन उन्हें जानना जरूरी है। अपने समाज को समझने और सामाजिक संरचना में सुधार और उसे बेहतर बनाने के लिए भी यह जानना जरूरी है कि हमारे वेद और शास्त्रों में संतान के बारे में क्या व्याख्या की गई है।
मनुस्मृति के अध्याय 9, श्लोक 138:
मनुस्मृति के इस अध्याय में कहा गया है कि जिनके बच्चे नहीं होते वो नर्क में जाते हैं और जो इस नर्क से बचाए वो पुत्र है। मतलब पुत्र ही नर्क में जाने से बचाता है।
पुन्नाम्नो नरकाद् यस्मात् त्रायते पितरं सुतः।
तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयम्भुवा ॥ १३८ ॥
इसका मतलब है कि एक बेटा अपने पिता को पुट नाम के नर्क से बचाता है इसलिए उसे ‘पु-त्र’ कहते हैं।
“क्योंकि जन्म से जो उसका स्वयं का बेटा है, वही उसे ‘पुट’ के नर्क से बचाता है इसलिए उसे पुत्र कहते हैं। ”
‘पुत्र’ एक संस्कृत का शब्द है। ‘पु’ एक विशेष नर्क का नाम बताया गया है और ‘त्र’ का अर्थ है उद्धार करना, मतलब पुत्र का मतलब है वह व्यक्ति जो किसी को नर्क से बचाकर उसका उद्धार करता है। यहां यह कहने का अर्थ है कि हर विवाहित पुरुष को कम से कम एक बेटे को जन्म देना चाहिए और अच्छी तरह उसकी परवरिश करना चाहिए ताकि वह उसे जीवन की बुरी स्थितियों से निकाल सके।
लेकिन यह निषेध या नियम भगवान विष्णु के भक्तों यानि संन्यासियों और ब्रह्मचारियों, कृष्ण पर लागू नहीं होता क्योंकि इसकी भक्ति करने समय यही भगवान भक्त के बेटे, पिता और माता बन जाते हैं।
श्रीमद भगवतम, किताब 9, अध्याय 20, श्लोक 22:
दुष्यंत और शकुंतला के संदर्भ देते हुए इसमें पुत्र का महत्व बताया गया है-
‘रेतोधाः पुत्रो नयति नरदेव यमक्षयात्
त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला।’
हे राजा दुष्यंत, जो वीर्य का निर्वहन करता है वही असली पिता होता है और उसका बेटा उसे यमराज के चंगुल से बचाता है। आप इस संतान के जनक हैं, शकुंतला सच बोल रही है।
श्री ए.सी.भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद:
यह सुनकर महाराजा दुष्यंत ने अपनी पत्नी और पुत्र को स्वीकार किया। वैदिक स्मृति के मुताबिक:
पुन्नाम्नो नरकात् परमात पितरं त्रायते सुतः।
तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः स्वयंमेव स्वयंभुवा।।
‘क्योंकि एक बेटा ही अपने पिता को नर्क की सज़ा से बचाता है इसलिए उसे पुत्र कहते हैं…’
ऋगवेद, तृतीय संहिता, बौद्धायन धर्मसूत्र:
ऋगवेद में प्रार्थना के तौर पर कहा गया है, “हे अग्नि, हम अपने बच्चों के माध्यम से अमर हों” (प्रजाभिर अग्ने अमृतत्वामस्यम) वैदिक संस्कृति में बच्चों को लेकर यह सबसे उच्चतम विचार था। तृतीय संहिता और बौद्धायन धर्मसूत्र में इसी बात को दोहराया गया है।
ऋगवेद, वी, 4, 10
‘मैं अपनी आत्मा से तुम्हारा आभारी हूं और इसी आभार के साथ तुम्हें याद कर रहा हूं, एक नष्ट होने वाला भी तुम्हारे साथ अमर हो सकता है, हमें उच्च वंश के साथ विभूषित कीजिए, ओर जाटवेद, मैं अपने बच्चों से अमर हो जाऊंगा।’
ऋगवेद, 10, 85, 45:
‘ओ इंद्र देव, इस वधू को अपने पुत्रों के साथ सौभाग्य दें, इसको दस पुत्र दें और इसके पति को ग्यारहवां पुरुष बनाइए।’
इसमें सीधे तौर पर इंद्र देवता से एक औरत के लिए दस बेटों का आशीर्वाद मांगा जा रहा है ताकि उसके घर में उसके पति को मिलाकर ग्यारह पुरुष हो जाएं।
तृतीय संहिता, आई.4.46
‘एक मैं आपको अमर बना रहा हूं, खुद को नश्वर बनाकर तुम्हारे लिए दिल से प्रार्थना कर रहा हूं।
हे बुद्धिमान दिव्यात्मा, हम पर अपनी कृपा बरसाओ, हे अग्नि मैं अपनी संतानों के माध्यम से अमर हो जाऊं।’
तृतीय संहिता, VI.3.10.5:
“…जब एक ब्राह्मण पैदा होता है तो ऋण के साथ पैदा होता है जिसमें उसके पिता (पितृ) का उधार भी होता है। पिता का यह उधार वह नहीं चुका सकता…लेकिन अपने बच्चे, विशेषकर एक बेटे को जन्म देकर वह अपने पिता के प्रति यह उधार चुका सकता है।‘
बौद्धायन धर्मसूत्र शास्त्र, प्रसंग 2, अध्याय 9, कांड 16, श्लोक 1 से 11:
‘एक ब्राह्मण पर तीन तरह के ऋण होते हैं- ऋषियों पर उसकी शिक्षा का उधार, ईश्वर पर उनके बलिदानों का उधार और अपनी पूर्वजों पर एक बेटे का उधार।’
Source(s):
http://www.bps.lk/olib/wh/wh150-p.html
http://www.sacred-texts.com/hin/rigveda/...
http://www.sacred-texts.com/hin/rigveda/rv10085.htm
http://www.sacred-texts.com/hin/yv/yv01.htm
http://www.sacred-texts.com/hin/yv/yv06.htm
http://www.hinduwebsite.com/sacredscripts/hinduism/dharma/baudh2.asp#2.2
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